Monday, November 15, 2010

मेरे अपने : गम

पाया नहीं

किसी का प्यार

दे पाया नहीं

किसी को

स्थिति थी असमंजस की

साथ किसी का

पाया नहीं.

बना न पाया

किसी को मित्र

बन न पाया

किसी का बंधु

दौड लगाता स्वार्थ बीच में

अपने को ही पाया शत्रु.

कह न पाया किसी को गुरु

कहला न पाया

किसी का शिष्य

कुछ खामियां थी दोनों की

पाया दोषी

अपने को ही.

अपना न पाया

अपनों को पाया न मुझे

अपनों ने कभी

गलतफ़हमी थी दोनों की

बेजोड पाया

अपने को ही.

- ज़मीर

प्रसाद की अमर पंक्तियां

छोटे से जीवन की कैसी बडी कथाएं आज कहूं

क्या यह अच्छा नहीं औरों की सुनता मैं मौन रहूं.

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा

अभी समय भी नहीं थकी सोई है मेरी मौन व्यथा.


13 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर कविता.

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  2. बना न पाया

    किसी को मित्र

    बन न पाया

    किसी का बंधु

    दौड लगाता स्वार्थ बीच में
    अपने को ही पाया शत्रु.

    जीवन सीखते रहने का ही नाम है ....

    बहुत अछे भाव और विचार हैं आपके .....!!

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  3. मोहसिन जी, शमीम जी, और हरकीरत हीर जी का आभार .

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  4. sudar v yatharth bhavon se yukt sarthak kavita.best of luck !

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  5. अच्छी भावनाओं से लिखी गई कविता। शुभकामनाएं। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    विचार-श्री गुरुवे नमः

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  6. Ek lambe samay ke bad shudh ghee mein chhani gai sahityik puri ka swad mila.Man mein ruke hue bhaon ko murt roop dene se abhivyakti ko sarthak ayam milta hai.my best wishes are always with you.

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  7. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है! हार्दिक शुभकामनाएं!
    लघुकथा – शांति का दूत

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  8. आपकी कविता, आत्म विवेचना करने को विवश कर रही है...
    बहुत सुन्दर लिखा है आपने..
    धन्यवाद..!

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  9. बहुत खूबसूरत रचना है ...

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  10. आप लोगों का आभार.

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