Tuesday, November 23, 2010

तपा हुआ कलाकार

यह कविता मैंने अपने पूज्य गुरुजी के महत्व पर लिखी है।


थपेडे खाते –खाते वह कलाकार बना

बनकर सामने आया

जूते को छोड सर से पैर तक सीधा –सादा

बस! हफ़्ते में दो बार ही

अपनी कला दिखाता

कुछ दर्शकों को उसकी कला पसंद है,

वह नहीं,

कुछ को वह पसंद है

उसकी कला नहीं.

और कुछ को न उसकी कला पसंद है और न वह ही.

मैं भी एक दर्शक हूं

पर दूसरों को देख

रोता है मेरा ह्रदय

क्योंकि मैं यह समझता हूं- कि वे यह अभी तक नहीं जानते-

कौन हीरा कौन कोयला?

खैर!

मुझे दुखी होने से क्या होगा?

मैं तो बस इतना जानता हूं-

मुझे वह कलाकार भी पसंद है और उसकी कला भी

क्योंकि मैं यह मानता हूं-

जैसा वह आदमी है ठीक वैसी है अद्वितीय उसकी कला

समय भागा चला जा रहा है

और अब भी वह थपेडे खाए चला जा रहा है-

कुछ दर्शकों से, अन्य कलाकारों से

खैर ! इससे उसे कोई फ़र्क नहीं पडता

क्योंकि मैं यह समझता हूं,

शायद आप भी ---

सोना जितना तपता है,उतना निखरता - चमकता है”.

- ज़मीर

(चित्र साभार गूगल)



Friday, November 19, 2010

जान मिल्टन की कविता- “on his blindness” – का हिन्दी अनुवाद मेरे द्वारा . शीर्षक मैंने दिया है- “एक सूरदास की कथा”.

जब मैं यह सोचता हूं, विचार करता हूं-

मेरी आधी ज़िन्दगी में मेरी कितनी ज्योति इस अंधकार जगत, और इसकी

समस्या में बर्बाद हुई,

पर मेरी एक प्रतिभा(कविताई) मरने से छुप गई है.

उसी प्रतिभा ने मुझ असहाय को सहारा दिया

हालांकि मेरी आत्मा झुक जाती है भगवान के चरणों में,

आजकल लोग मुझे फ़टकरते है –क्या दिन में भगवान ही काम आते है, प्रकाश

नहीं.

मैं खुश होकर धैर्य के साथ अपनी संतुष्टि ज़ाहिर करता हूं,

और जवाब मिलता है –भगवान को न मनुष्य के कार्य चाहिए न उसकी स्वयं की

दी हुई भेंट.

भगवान उसी को चाहता है,

उसी को प्यार करता है जो उसकी सत्ता को स्वीकरता है,

जो उसके अस्तीत्व को स्वीकरता है वही उसका सच्चा सेवक है.

उसका(भगवान) दर्जा बहुत ऊंचा है, उच्चतम है.

हज़ारों उसकी ज्ञा के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं.

यहां तक की जल थल को आराम नहीं है

भगवान उसी को देता है – जो या तो खडा है या इंतजार कर रहा है.

- अनुवाद – ज़मीर

Monday, November 15, 2010

मेरे अपने : गम

पाया नहीं

किसी का प्यार

दे पाया नहीं

किसी को

स्थिति थी असमंजस की

साथ किसी का

पाया नहीं.

बना न पाया

किसी को मित्र

बन न पाया

किसी का बंधु

दौड लगाता स्वार्थ बीच में

अपने को ही पाया शत्रु.

कह न पाया किसी को गुरु

कहला न पाया

किसी का शिष्य

कुछ खामियां थी दोनों की

पाया दोषी

अपने को ही.

अपना न पाया

अपनों को पाया न मुझे

अपनों ने कभी

गलतफ़हमी थी दोनों की

बेजोड पाया

अपने को ही.

- ज़मीर

प्रसाद की अमर पंक्तियां

छोटे से जीवन की कैसी बडी कथाएं आज कहूं

क्या यह अच्छा नहीं औरों की सुनता मैं मौन रहूं.

सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा

अभी समय भी नहीं थकी सोई है मेरी मौन व्यथा.