यह कविता मैंने अपने पूज्य गुरुजी के महत्व पर लिखी है।
थपेडे खाते –खाते वह कलाकार बना
बनकर सामने आया
जूते को छोड सर से पैर तक सीधा –सादा
बस! हफ़्ते में दो बार ही
अपनी कला दिखाता
कुछ दर्शकों को उसकी कला पसंद है,
वह नहीं,
कुछ को वह पसंद है
उसकी कला नहीं.
और कुछ को न उसकी कला पसंद है और न वह ही.
मैं भी एक दर्शक हूं
पर दूसरों को देख
रोता है मेरा ह्रदय
क्योंकि मैं यह समझता हूं- कि वे यह अभी तक नहीं जानते-
कौन हीरा कौन कोयला?
खैर!
मुझे दुखी होने से क्या होगा?
मैं तो बस इतना जानता हूं-
मुझे वह कलाकार भी पसंद है और उसकी कला भी
क्योंकि मैं यह मानता हूं-
जैसा वह आदमी है ठीक वैसी है अद्वितीय उसकी कला
समय भागा चला जा रहा है
और अब भी वह थपेडे खाए चला जा रहा है-
कुछ दर्शकों से, अन्य कलाकारों से
खैर ! इससे उसे कोई फ़र्क नहीं पडता
क्योंकि मैं यह समझता हूं,
शायद आप भी ---
“सोना जितना तपता है,उतना निखरता - चमकता है”.
- ज़मीर
(चित्र साभार गूगल)