Monday, December 13, 2010

लहरों ने बचा लिया


लहरों ने मुझे डूबने नहीं दिया

सबसे पहले

मैंने अपने को

लहरों में पाया

पहली-पहली बार लहरों ने मुझे

एक किनारे फ़ेका, कुछ देर रहने दिया

फ़िर लहरों ने वापस मुझे

अपने में ले लिया,

मिला लिया।


दूसरी बार लहरों ने मुझे

एक दूसरे किनारे फ़ेका

जब तक मैं अपने को किनारे में पाता

इससे पहले उसने मुझे वापस अपने में मिला लिया।


अंतिम बार

मैं और लहरें साथ थे

मेरी इच्छा थी

किनारे को पकडने की

पर किनारे को यह मंजूर न था

मैं फ़िर अपने को

लहरों में पाता हूँ

और बहे चला जाता हूँ

इस आस में

कि किनारा मुझे पसंद करे

मैं किनारें को पसंद करुँ।

· ज़मीर

Saturday, December 4, 2010

कहानी और उपन्यास


मैं एक कहानी हूँ

कैसी कहानी?

ठीक वैसी कहानी हूँ :~

जैसे मैंने अपने को लिखा है

पर मैं जानता नहीं मैं कैसी कहानी हूँ.

क्योंकि मैंने अपने को;

लिखा तो है ,पर पढा नहीं ,

हमेशा यह चाहत रहती है ~

मुझे कोई पढे, मुझे कोई पढे.......

जिससे उम्मीद करता हूं पढने की

वे प्रारम्भ को बडे ध्यान से पढते हैं

उसी में उन्हें इतना रस मिल जाता है

कि वे आगे नहीं बढना चाहते.

कोई मेरी कहानी की अंतिम बात जान लेता है,

और उसी से प्रारंभ तक को जान लेता है.

एक ऐसा भी वर्ग है-

जो मेरी कहानी के मध्य भाग को देख पाता है

और उसी से

छ्ह को कभी नौ

और कभी नौ को छह बनाता है

पर अचानक मुझे ख्याल आता है-

मेरी कहानी को कब , कौन, कैसे पढ लेता है

मुझे पता नहीं चलता!

मेरी कहानी पढने का अर्थ मैं

मुह की आवाज से लेता हूं, चुप्पी से नहीं

इसलिए मेरी कहानी की पंक्तियाँ

जिसके मुह से निकल जाती है

मैं समझने लगता हूँ-

उसी ने मुझे जाना और पहचाना

पर मेरी समझ गलत होती है

पढते तो लोग मेरी कहानी को है

देखते और समझते किसी और को है

पर जो मेरी चुप्पी से मेरी कहानी पढ लेते हैं

मुझे पता नहीं चलता कब उन्होंने मुझे पढा

पढाई –लिखाई के चक्कर में

मैं इतना गुम हो जाता हूं कि

जिन्होंने मुझे पूरा पढा

मैं उन्हे जान नहीं पाता

और असल बात तो यह है कि

हर शब्द का एक अर्थ होता है

उसी तरह मेरी कहानी के कई अर्थ

अब भी विद्यमान हैं

जो मेरे लिए उपन्यास है.

- ज़मीर

गूगल चित्र साभार

Tuesday, November 23, 2010

तपा हुआ कलाकार

यह कविता मैंने अपने पूज्य गुरुजी के महत्व पर लिखी है।


थपेडे खाते –खाते वह कलाकार बना

बनकर सामने आया

जूते को छोड सर से पैर तक सीधा –सादा

बस! हफ़्ते में दो बार ही

अपनी कला दिखाता

कुछ दर्शकों को उसकी कला पसंद है,

वह नहीं,

कुछ को वह पसंद है

उसकी कला नहीं.

और कुछ को न उसकी कला पसंद है और न वह ही.

मैं भी एक दर्शक हूं

पर दूसरों को देख

रोता है मेरा ह्रदय

क्योंकि मैं यह समझता हूं- कि वे यह अभी तक नहीं जानते-

कौन हीरा कौन कोयला?

खैर!

मुझे दुखी होने से क्या होगा?

मैं तो बस इतना जानता हूं-

मुझे वह कलाकार भी पसंद है और उसकी कला भी

क्योंकि मैं यह मानता हूं-

जैसा वह आदमी है ठीक वैसी है अद्वितीय उसकी कला

समय भागा चला जा रहा है

और अब भी वह थपेडे खाए चला जा रहा है-

कुछ दर्शकों से, अन्य कलाकारों से

खैर ! इससे उसे कोई फ़र्क नहीं पडता

क्योंकि मैं यह समझता हूं,

शायद आप भी ---

सोना जितना तपता है,उतना निखरता - चमकता है”.

- ज़मीर

(चित्र साभार गूगल)



Friday, November 19, 2010

जान मिल्टन की कविता- “on his blindness” – का हिन्दी अनुवाद मेरे द्वारा . शीर्षक मैंने दिया है- “एक सूरदास की कथा”.

जब मैं यह सोचता हूं, विचार करता हूं-

मेरी आधी ज़िन्दगी में मेरी कितनी ज्योति इस अंधकार जगत, और इसकी

समस्या में बर्बाद हुई,

पर मेरी एक प्रतिभा(कविताई) मरने से छुप गई है.

उसी प्रतिभा ने मुझ असहाय को सहारा दिया

हालांकि मेरी आत्मा झुक जाती है भगवान के चरणों में,

आजकल लोग मुझे फ़टकरते है –क्या दिन में भगवान ही काम आते है, प्रकाश

नहीं.

मैं खुश होकर धैर्य के साथ अपनी संतुष्टि ज़ाहिर करता हूं,

और जवाब मिलता है –भगवान को न मनुष्य के कार्य चाहिए न उसकी स्वयं की

दी हुई भेंट.

भगवान उसी को चाहता है,

उसी को प्यार करता है जो उसकी सत्ता को स्वीकरता है,

जो उसके अस्तीत्व को स्वीकरता है वही उसका सच्चा सेवक है.

उसका(भगवान) दर्जा बहुत ऊंचा है, उच्चतम है.

हज़ारों उसकी ज्ञा के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं.

यहां तक की जल थल को आराम नहीं है

भगवान उसी को देता है – जो या तो खडा है या इंतजार कर रहा है.

- अनुवाद – ज़मीर