यह कविता मैंने अपने पूज्य गुरुजी के महत्व पर लिखी है।
थपेडे खाते –खाते वह कलाकार बना
बनकर सामने आया
जूते को छोड सर से पैर तक सीधा –सादा
बस! हफ़्ते में दो बार ही
अपनी कला दिखाता
कुछ दर्शकों को उसकी कला पसंद है,
वह नहीं,
कुछ को वह पसंद है
उसकी कला नहीं.
और कुछ को न उसकी कला पसंद है और न वह ही.
मैं भी एक दर्शक हूं
पर दूसरों को देख
रोता है मेरा ह्रदय
क्योंकि मैं यह समझता हूं- कि वे यह अभी तक नहीं जानते-
कौन हीरा कौन कोयला?
खैर!
मुझे दुखी होने से क्या होगा?
मैं तो बस इतना जानता हूं-
मुझे वह कलाकार भी पसंद है और उसकी कला भी
क्योंकि मैं यह मानता हूं-
जैसा वह आदमी है ठीक वैसी है अद्वितीय उसकी कला
समय भागा चला जा रहा है
और अब भी वह थपेडे खाए चला जा रहा है-
कुछ दर्शकों से, अन्य कलाकारों से
खैर ! इससे उसे कोई फ़र्क नहीं पडता
क्योंकि मैं यह समझता हूं,
शायद आप भी ---
“सोना जितना तपता है,उतना निखरता - चमकता है”.
- ज़मीर
(चित्र साभार गूगल)
बहुत सुंदर प्रस्तुति। आभार इस रचना से रू ब रू कराने के लिए।
ReplyDeleteक्योंकि मैं यह समझता हूं,
ReplyDeleteशायद आप भी ---
“सोना जितना तपता है,उतना निखरता - चमकता है”.
खूबसूरत पंक्तियाँ.....मनोभावों के सुंदर तानेबाने को प्रस्तुत करती रचना ..... बेहतरीन
बहुत खूब... बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteउम्दा कविता। बधाई।
ReplyDeleteBehatarin post.Badhai.
ReplyDelete“सोना जितना तपता है,उतना निखरता - चमकता है”.
ReplyDeleteजमीर आप बहुत सार्थक लिखते हैं ! आपके गुरु ने मुझे पुरस्कृत किया था ,इसलिए मै भी नतमस्तक हूँ उन्हें याद करते हुए ! आपके लिए शुभकामनायें !
गरूजनों को मेरा भी नमन.
ReplyDeleteआदर्णीय उषा जी , आपका आभार.
ReplyDeleteगुरूजन हमेशा पुजनीय होते है। जमीर जी उम्दा लेखन के लिए बधाई।
ReplyDeleteगुरु के चरणों में स्वर्ग है .. सुंदर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteमन के भाव को प्रकट करती हुई सुन्दर रचना !
ReplyDelete-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
गरूजनों को मेरा नमन.
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